छन्द

मन‌ के सागर को मथकर, नवनीत अनोखा पाते हैं।कर्मों कीअग्नि मे पक कर,व्यक्तित्व ऒर निखर जाते हैं।। भावों के दीपक को जगमग,मीठे बोल ही कर पाते हैं।उर के अन्धकारों को झिलमिल, प्रेम के दीपक कर जाते हैं।। ()